कुछ दिन पूर्व डी.डी. भारती पर एक पुराना कार्यक्रम देख रहा था] संचालन नौशाद साहब कर रहे थे] गायक थे मुहम्मद रफी साहब। गाने ऐसे थे जो मुझे बचपन के नाॅस्टेल्जिया में ले गऐ। किसी को भी ले जाते यदि उसने अपने बचपन में रेडियो के ज़रिये पुराने गानों को सुना होता।
लेकिन वो दिन भी क्या दिन थे] पुराने गानों का जुनून सिर चढ़कर बोलता था। पुराने गानों के रेडियो पर प्रसारित होने वाले प्रोग्राम्स के टाईमिंग्स याद रहते थे। खास तौर पर आॅल इंडिया रेडियो की उर्दू मजलिस] उर्दू मजलिस का तप्सरा और विविध भारती का छायागीत।
जिस प्रोग्राम का मैंने ऊपर जि़क्र किया वो शायद 1975-1980 के बीच का प्रोग्राम था (मुहम्मद रफी साहब की मृत्यू 31 अक्टूबर 1980 को हो गई थी)। प्रोग्राम में सारा म्यूजि़क नौशाद साहब के निर्देशन में अनेक फनकारों द्वारा दिया जा रहा था। सारंगी वादक थे] तबला वादक थे] और बहुत सारे फनकार थे। जब रफी साहब ने बैजू बावरा से गाना शुरू किया] ओ दुनिया के रखवाले और गाने की शुरूआत में अपने ओजस्वी स्वर में चार बार भगवान बोला] यकीन मानिये आस पास जैसे एक यख्वस्ता खामोशी छा गई, जैसे वक्त ठहर गया] जैसे भगवान स्वंय ज़मीन पर उतर आये और जैसे दिल ने धड़कना बंद कर दिया।
योग और प्राणायाम में विभिन्न आसनों के माध्यम से दिल की दो धड़कनों के बीच के समय को बढ़ाने का प्रयास किया जाता है] मगर हिन्दुस्तानी मौसिकी में अनेक गाने ऐसे हैं] जो ये कार्य बखूबी कर सकते हैं।
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